टीबी खत्म करना अनिवार्य
अगर हम 2030 तक टीबी से मुक्ति चाहते हैं तो तुरंत काम तेज करना होगा
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वैश्विक तौर पर टीबी का बोझ कम हो रहा है. इसके बावजूद 2017 में एक करोड़ नए मरीजों की पहचान हुई और 16 लाख लोगों की जान गई. इससे पता चलता है कि काफी कुछ किया जाना बाकी है. सदियों पुरानी यह बीमारी अब भी खतरनाक बनी हुई है और इसकी वजह से न सिर्फ मरीज को परेशानियों का सामना करना पड़ता है बल्कि उनके परिजनों को भी सामाजिक भेदभाव सहना पड़ता है. टीबी पर संयुक्त राष्ट्र की पहली उच्च स्तरीय बैठक 26 सितंबर, 2018 को हुई. इसमें सतत विकास लक्ष्यों के तहत 2030 तक टीबी से मुक्ति पाने के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर की गई. दुनिया के कुल टीबी मरीजों में 27 फीसदी भारत में हैं. भारत ने 2025 तक टीबी मुक्त होने का लक्ष्य रखा है. भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत देखते हुए यह लक्ष्य अव्यावहारिक लगता है.
अब भी टीबी के सारे मामले सामने नहीं आते. इससे इसके खिलाफ जंग प्रभावित हो रही है. दुनिया में हर साल जो एक करोड़ मामले टीबी के होते हैं उनमें से 64 लाख ही दस्तावेजों में दर्ज हो पाते हैं. भारत में ही 36 लाख ऐसे मामलों में से 26 फीसदी आधिकारिक तौर पर दर्ज नहीं हो पाते. हालांकि, 2013 के बाद दर्ज कराए जाने वाले मामलों में तेजी देखी गई है. इसकी वजह निजी अस्पतालों की ओर से दर्ज कराने में आई तेजी है. सारे मामले सामने नहीं आ पाने से इससे मुकाबला करना और कठिन हो गया है.
2012 में सरकार ने टीबी के मामलों को दर्ज कराने की अनिवार्यता लाई थी. सरकार ने निक्षय पोर्टल पर इन मामलों को दर्ज कराने की सुविधा मुहैया कराई. लेकिन इस पोर्टल ने कई परेशानियों का सामना किया. लोगों में जागरूकता कम है, गलत धारणाओं की वजह से लोग दर्ज नहीं कराना चाहते, रिपोर्टिंग में तारतम्य नहीं है और जो रिपोर्टिंग कर रहे हैं, उन्हें कोई प्रोत्साहन नहीं मिल रहा. इस वजह से इस पोर्टल का कम इस्तेमाल हो रहा है. चीन में ऐसी व्यवस्था लागू होने के बाद वहां टीबी मामलों में काफी कमी आई. मार्च, 2018 में भारत सरकार ने रिपोर्टिंग नहीं किए जाने को दंडनीय अपराध बना दिया. साथ ही दवा बेचने वालों के लिए रिकाॅर्ड रखने और उन्हें प्रोत्साहन देने का भी प्रावधान किया.
जिस तरह टीबी का इलाज जरूरी है, वैसे ही इस व्यवस्था का सही परिचालन भी. नए मामलों की रिपोर्टिंग तो बढ़ी है लेकिन इलाज के परिणाम की रिपोर्टिंग प्रभावी ढंग से नहीं हो पा रही. 2016 में ऐसे 22 फीसदी मामलों की रिपोर्टिंग नहीं हुई. अगर यह सब ठीक से नहीं होगा तो टीबी मरीज दवा प्रतिरोधी टीबी के शिकार होते जाएंगे. टीबी के 69 फीसदी मामलों में इलाज प्रभावी रहा है. एमडीआर टीबी में यह आंकड़ा 46 फीसदी है. पांच साल से कम के बच्चों के मामलों में तो स्थिति और भी खराब है.
दुनिया के 23 फीसदी लोग अव्यक्त तौर पर टीबी से संक्रमित हैं. ऐसे में इसके खिलाफ जंग बेहद जरूरी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसके लिए पांच जोखिम वाली वजहें बताई हैंः शराब, धूम्रपान, मधुमेह, एचआईवी एड्स और कुपोषण. भारत में सबसे अधिक खतरा कुपोषण की वजह से है. ऐसे में पोषण ठीक किए बिना और गरीबी दूर किए बगैर टीबी के खिलाफ जंग अधूरा है. भारत में अब भी 60 साल पुराने आंकड़ों के आधार पर टीबी से निपटने की रणनीतियां बनाई जा रही हैं. टीबी को लेकर आखिरी राष्ट्रीय सर्वेक्षण 1955 में हुआ था. अगर नियमित तौर पर ये सर्वेक्षण हों तो निपटना आसान होता है. 2019-20 में ऐसा सर्वेक्षण होने वाला है. इसका मतलब यह हुआ कि विश्वसनीय आंकड़ों के लिए अभी कुछ साल और इंतजार करना होगा.
टीबी के जोखिम के हिसाब से इससे निपटने के मामले में कम प्रगति हुई है. 40 साल बाद दो नई दवाइयां बेडाक्यूलिन और डेलामेनिड हाल में उपलब्ध हो पाईं. इससे बचाव के लिए वैक्सिन तैयार करने की काफी जरूरत है. जब तक पूरा विश्व और इससे काफी प्रभावित भारत जैसे देश सक्रिय होकर टीबी के खिलाफ काम नहीं करेंगे तब तक 2030 तक इससे मुक्ति पाना संभव नहीं हो पाएगा.